Friday 31 August 2018

स्त्री, समाज को देखने का अलग नज़रिया



फिल्म स्त्री मनोरंजक है, भूतिया है, और शायद इससे ज्यादा भी है। स्त्री चार दिनों की पूजा में आती है और स्त्री के ये चार दिन पूरी की पूरी समाजिक व्यवस्था को उलट देते है। ये फिल्म दिखाती है कि जेंडर के आधार पर असुरक्षित होना क्या होता है और सुरक्षा के नाम पर किसी वर्ग या जेंडर को भयाक्रांत बनाए रखने के साथ उनकी स्वतंत्रता छीन कर उन्हें पव्लिक स्पेस से गायब कर देना कैसा होता है। जब किसी कस्बे के सारे पुरुष स्त्री से डरते है तब ये फिल्म उस समाज को संकेतिक रूप से रखती है जहां औरतें आतंकवाद, नक्सलवाद, माओवाद, डकैती, लूटपाट इन सबसे ज्यादा पुरुषों से डरती हैं। रास्तों पर पुरुष उन्हें नुकसान पहुंचा सकता है तो घर की दीवारें ही उनके लिए सुरक्षित जगह है, पुरुषों की नज़रों या मेल गेज़ से बचने के लिए दुपट्टा, पल्ला, घुंघट हिजाब समाज के सौ तरीके है कुल मिला कर सुरक्षा के नाम पर औरतों से पब्लिक स्पेस पर क्लेम करने का अधिकार ही छीन लिया जाता है।

जब स्त्री के सारे पुरुष घूंघट डालकर सड़कों पर निकलते हैं और पुरुषों को ये हिदायत दी जाती है कि अकेले मत जाओ झुंड मे जाओ या जब इस फिल्म का जवान मर्द ये कहते हैं कि हमारे डैडी इंतज़ार कर रहे होंगे, हम भी मम्मी को बोल कर नहीं आए, तो महज  चार दिनें में इस समाजिक व्यवस्था की चिंता चरम पर पहुंच जाती है और लोग उस एक स्त्री से छुटकारा पाने के लिए अधीर हो उठते हैं। वहीं सदियों से ऐसे हालातों को औरतो की जिंदगी का हिस्सा बनाए रखा गया है लेकिन आज तक किसी ने उन पुरुषों या विचारों से छुटकारा पाने की अधीरता नहीं दिखाई जो इस व्यवस्था के मूल में हैं।
ये फिल्म मर्दानगी के कॉन्सेप्ट को भी उलट कर देखती है, इसका हीरो लेडीज टेलर है और सिलाई में उसे महारत हासिल है, वो भूत से लड़ता नहीं है, डरता है और सुहागरात मनाने के लिए भी तैयार हो जाता है। जब भूत को मारने की बात आती है तो वो खंजर उसके सीने में डालने की जगह चोटी काट कर लाने की वकालत करता है। जब विकी (राजकुमार राव) कहता है कि उसका जन्म पेटीकोट और ब्लाउज ढीले करने के लिए नहीं हुआ है तो सांकेतिक ही सही वो मर्दानगी की मान्यताओं को तोड़ता है।
अपने एक्टर्स के अभिनय के इस्तेमाल में निर्देशक सफल ह्ए है कोई भी चरित्र कहीं भी ढीला नही पड़ता। फिल्म में विजय राज और पंकज त्रिपठी की छोटी सी हास्य जुगलबंदीं अपने आप ही रन फिल्म के कौवा बिरियानी की याद दिला देती हैं। फिल्म का अंतस्त्री हमारी रक्षा करना’ समाज में नए मायने गढ़ता है
निर्देशक अमर कौशिक ने हॉरर कॉमेडी के जरिए व्यवस्था को उलट कर देखने की बेहतरीन कोशिश की है। भूत -प्रेत के जरिए  व्यवस्था पर और ज्यादा व्यंग किया जा सकता था क्योकि इस फिल्म में ये स्पेस मौजूद है। बाजार के पॉपुलर कल्चर को अपनाते हुए भूत-प्रेत की अवैज्ञानिकता को बनाए रखना शायद फिल्म के अप्रोच के साथ न्याय नहीं है, ये फिल्म इस अवैज्ञानिकता को तोड़ने को जोखिम उठा सकती थी।

Monday 9 April 2018

एंग्री यंग मैन का तिलिस्म तोड़ते- मोहन जोशी और मि. पिंटो

  ‘मोहन जोशी हाजिर हो’ औरअल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है’, ये दो फिल्में नहीं बल्कि दो आईने हैं, जो समाज के एक ही बिम्ब को उकेरते हैं। दोनों ही आम इंसान की उम्मीद, मायूसी, दौड़, थकान, गुस्सा और गुस्से को दबाए रखने की विवशता हैं। वैसे अस्सी के दशक में आने वाली ये दोनो फिल्में एंग्री यंग मैन को चुनौती देती हैं और कहती हैं कि उत्तेजित करने वाले बड़े-बड़े संवाद बोले बिना और माथे पर बल दिए बगैर, निर्भाव रूप से भी गुस्सा जाहिर किया जा सकता है। साथ ही यह भी कहती है कि संघर्ष के लिए यंग होना जरूरी नहीं क्योंकि इन फिल्मों में दो बुजुर्गों के जरिए समाज का स्याह चरित्र उजागर किया गया है।
  70-80 के दशक में देश सिर्फ राजनैतिक अस्थिरता से ही नहीं जूझ रहा था, बल्कि आम आदमी भी अपने कमजोर होते अधिकार और अस्थिर होती जरूरतों से जूझ रहा था। नारा जरूर गरीबी हटाओं का था लेकिन हटाए जा रहे थे या यूं कहिए ढहाए जा रहे थे, आम इंसान की इच्छाएं, उसके सपने और उसकी जिजीविषा। इन सबके बावजूद तीन जवान बच्चो के पिता मिस्टर पिंटो (अल्बर्ट पिंटो के पिता) और रिटायर मोहन जोशी अपने अधिकारों की  लड़ाई लड़ना तय करते हैं। वैसे लड़ाई भी क्या, मोहन जोशी अपने चॉल की मरम्मत कराने के लिए न्यायलय का दरवाजा खटखटाते हैं और मि. पिंटो अपने बोनस के लिए दूसरे साथी मजदूरों के साथ हड़ताल पर जाते हैं।
       

      जिस तरह कोई भी पिता अपने जवान बेटे से अपने मन की बात कहता है, उसी तरह मि. पिंटो भी अलेबर्ट (नशीरुद्दीन शाह) को अपने हड़ताल पर जाने की वजह बताते हैं, “28 बरस तक उस मिल में काम किया मैं, उस मिल का शोर मेरे भेजे में घुस गया....जीना मुश्किल हो गया, फिर भी चुप रहा....फैमली को देखना था, बच्चे लोग को बड़ा करना था, हो सकता है इसीलिए मुंह बंद किया, काम करता रहा...इज्जत से जीने को नहीं मिला, फिर भी चुप रहा...इस इस्ट्रईक से क्या मिलने वाला है ये पता नहीं, लेकिन एक चीज मैं सोंचा हूं, मेरे को लड़ना है। यह महज संवाद नहीं यह बिंब है उस आम आदमी का, जो अपने सम्मान की कीमत पर अपने परिवार का भरण-पोषण करता है। ऐसा नहीं कि लड़ने का साहस नहीं उसमें, लेकिन उसकी जिम्मेदारियों ने उसके साहस को सारी उम्र बांधे रखा।
  इसी तरह मोहन जोशी भी न्याय पाने की जिद्दोजहद में व्यवस्था के कुचक्र में फसता जाता है, लंबे समय तक उम्मीदों की पगडंडियों पर चलते- चलते जब उसकी क्षमता जवाब देने लगती है, तो कह उठता है, उफ्फ….कैसी थकान है ये, मन टूटता है तो ससुरा शरीर भी टूटने लगता है, आखिर कब तक नहीं टूटता... यहां मोहन जोशी अनकहे शब्दों में कह देता है कि उम्मीदों को ढोना इतना आसान नहीं है, ये भी अजीब सी थका देने वाली प्रक्रिया है, जिसमें शरीर ही नही मन भी थक जाता है, लेकिन संघर्ष चलता रहता है।
              

  इस तरह ये दोनो फिल्में अपने दौर के एंग्री यंग मैन का तिलिस्म तोड़ती हैं और बताती हैं कि गुस्सा उम्र का मोहताज नहीं होता है, ये हर उम्र में हो सकता है और ये भी जरूरी नही कि  यह युवा अवस्था में किसी बेहतर कल की उम्मीद में ही फूटे। मि. पिटों और मोहन जोशी ने तो अपनी लड़ाई तब शुरू की जब वह लगभग अपनी जिम्मेदारियों से निज़ात पा चुके थे और उनके आज और कल का फासला कमज़ोर हो चुका था।
  फिर भी सवाल बचता है कि अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है? दरअरल उसे गुस्सा तब नहीं आता जब उसका पिता मिल मजदूरों के साथ हड़ताल पर जाता है, उसे गुस्सा तब नहीं आता जब उसका भाई जेल जाता है, उसे गुस्सा तब भी नहीं आता जब उसका पिता हड़ताल के कारण सेठ के गुंडों से पिट कर आता है। यहां अल्बर्ट पिंटो भी अपने गुस्से से 70-80 के दशक के एंग्री यंग मैन को चुनौती देता है। अल्बर्ट को अपने बाप के पिटने पर गुस्सा नहीं आता और ही वह गुडों से बदला लेने दौड़ पड़ता है लेकिन उसे सत्ता के झूठ पर गुस्सा आता है। उसे गुस्सा तब आता है जब मोहन जोशी न्याय पाने के लिए अपने ही चॉल के छत के चूले हिला-हिला कर धराशाई हो जाता है, उसे गुस्सा तब आता है जब उसके पिता और उनके साथियों के जायज मांगों को देश में विदेशी मुद्रा की कमी का कारण बताया जाता है और उनके हड़ताल को नजायज करार दिया जाता है।

  थोड़ा महसूस करिए ऐसे कितने मोहन जोशी और अल्बर्ट पिंटो अपने गुस्से के साथ हम सब के अंदर हैं। क्या फर्क पड़ता कि वो बीसवीं सदी का आठवा दशक था और ये इक्कीसवीं सदी का दूसरा दशक है। परिस्थितियां कुछ खास नहीं बदली, तभी तो मोहन जोशी और अल्बर्ट पिंटो दोनो ही अपने से लगते हैं।

Sunday 28 January 2018

क्योंकि सभ्यताएं जीवन से फलती-फूलती हैं जौहर से नहीं

क्योंकि सभ्यताएं जीवन से फलती-फूलती हैं जौहर से नहीं


तमाम विरोध प्रर्दशनों के बीच पद्मावत रिलीज हो गई, लोगो ने अपने-अपने हिसाब से इसकी प्रशंसा और निंदा की इसी बीच संजय लीला भंसाली के नाम स्वरा भास्कर का खुला पत्र भी आ गया। लेकिन हमें कुछ सवालों पर चर्चा करने की सख्त ज़रूरत है, कि जो इतिहास हम जानते और समझते हैं वो कितना शुद्ध है? जिन योद्धाओं का हम महिमा मंडन कर रहे हैं वो कितने वीर थे? ज़िन्दगी या जौहर मे से किसे चुनना वीरता है? 
दरअसल इतिहास नंगी आंखों से नहीं देखा जा सकता, इसीलिए इतिहास की शुद्धता की उम्मीद करना भी तर्क संगत नहीं होगा हम इतिहास को हमेशा किसी न किसी चशमें से देखते हैं वो चशमा कभी जायसी होते हैं तो कभी भंसाली। कभी - कभी रचनाकार अपनी रचनात्मकता और अपने विचारों को तर्क संगत बनाने के लिए अपने नायक और नायिकाओं को तमाम गुणों से सुसज्जित कर देते है और किसी आम व्यक्ति को योद्धा बना देते हैं। अब ये विचार करने योग्य तथ्य  है कि जब ये योद्धा इतने वीर थे, तो इनके राज्य मे किसी जौहर कुंड की क्या जरूरत थी, क्या जौहर कुंड का होना यह नहीं दर्शाता कि इन योद्धाओं को अपनी विजय पर भरोसा नहीं था। हारने की स्थिती मे इनकी रानियां राज्य की अन्य स्त्रीयों सहित इन जौहर कुंडों में सामुहिक आत्महत्या कर लेती। फिर इतिहास ने इसका महिमामंडन किया और इसे मर्यादा और सम्मान की रक्षा का नाम दे दिया। कितना भीषण और विभत्स दृश्य रहा होगा इतनी बड़ी संखाया में स्त्रीयों द्वारा सामूहिक आत्महत्या। शायद इसकी भीषता के कारण ही बाद के राजपूत राजाओं ने अकबर के सुलहकुल की नीति अपनाई होगी, हालांकि ये बात दावे के साथ नहीं कही जा सकती क्योंकि इतिहास इस बारे मे मौन है। 

यहां उद्देश्य हमारी धरती के योद्धाओं की वीरता पर सवाल खड़े करना बल्कि इतिहास को तर्क संगत दृष्टी से देखना है
अब अगला सवाल ये खड़ा होता है कि जीवन या जौहर में किसे चुनना वीरता है। वैसे ईसा पूर्व चौथी सदी में ही चाणक्य ने अपने अर्थशास्त्र गुप्तचर व्यवस्था का वर्णन किया है, चाणक्य ने गुप्तचर विभाग में विष कन्याओं को रखने की बात की है। यदि खिलजी रानी पद्मिनी के रूप से इतना मुग्ध था तो वो निश्चय ही कमज़ोर चरित्र का रहा होगा फिर ऐसी स्थिती में राजपूत योद्दाओं ने अपनी गुप्तचर स्त्रीयो का लाभ उठा कर खिलजी की सेना को कमज़ोर क्यूं नहीं किया? या शायद तेरहवीं सदी, ईसा पूर्व चौथी सदी के चाणक्य को भूल गया था या तेरहवीं सदी को चाणक्य अप्रसंगिक लगता होगा।
शायद तेरहवीं सदी तक आते-आते राजपुताना मान- मर्यादा, राजपूतों की भुजाओं और राजपुतानियों की योनिकता में बसने लगी थी। फिर यहां एक सवाल खड़ा होता है कि यदि ऐसा था तो जिस तरह योद्धाओं को युद्ध कला का प्रशिक्षण दिया जाता था, उसी तरह राजपूत स्त्रीयों को भी यह प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए था कि किस तरह विवेक और साहस के साथ शत्रु के गुप्तांगों पर प्रहार करना है और उसे नपुंसक बनाना है । ज़रा सोंचिए अगर ऐसा होता तो शायद इतिहास ये कहता कि राजपूत योद्धाओं के हार के बावजूद राजपूत स्त्रीयों ने खिलजी सहित उसकी पूरी सेना को नपुंसक बना दिया। क्या इस बात से हमें इतिहास पर गर्व न होता, बिल्कुल होता। अब आप कह सकते हैं कि यहां हवाई किले बनाए जा रहे हैं, लेकिन साहब इसका क्या प्रमाण है कि हम जिसे ऐतिहासिक दस्तावेज समझ रहें हैं वे वास्तव में दस्तावेज हैं, वो किसी रचनाकार की मात्र कलात्मक अभीव्क्ति भी हो सकती है। मगर क्या करें हमारा इतिहास भी तो पुरूषो का, पुरूषों के द्वारा, पुरूषों के लिए है, जहां स्त्रीयों
का शौर्य केवल जौहर तक है।
अब युद्ध और युद्द की परिस्तिथियों पर भी गौर करने की जरूरत है। क्या दुश्मन या युद्ध इतना क्रूर और अततायी होता है कि उसमें जीवन की संभावना ही न बचे। अगर ऐसा होता तो दूसरा विश्व युद्ध ऑस्कर शिंडलर की कहानी न कहता, जर्मन होते हुए भी जिसने हजारों यहुदियों को बचाया। भारत-पाकिस्तान के बटवारे के दौरान किसी जेनिब को बूटा सिंह भी न मिलता। इसी बटवारे के कारण जब जहर का कर या कुएं में कूद कर औरते जौहर कर रही थी तो पिंजर की पूरों ने रासिद को अपनाया था (पिंजर के पात्र काल्पनिक भले हों लेकिन ये उस दौर का सच है)। तमाम युद्ध की विभिषिकाओं के बीच ज़िन्दगी अपने लिए रास्ते तलाश लेती है। हलांकि ये सच है कि इतिहास रानी पद्मावति के जौहर को नज़रअंदाज नहीं कर सकता जिसने जीतने के बाद भी दिल्ली के सुल्तान को हरा दिया था। लेकिन इक्कीसवीं सदी में जौरह का महिमा मंडन समझ से परे है, क्योंकि इस बात में कोई शक नहीं कि सभ्यताएं जीवन से फलती-फूलती हैं जौहर से नहीं।