फिल्म स्त्री मनोरंजक
है, भूतिया है, और शायद इससे ज्यादा भी है।
स्त्री चार
दिनों की पूजा में आती है और स्त्री के ये चार
दिन पूरी
की पूरी
समाजिक व्यवस्था
को उलट
देते है। ये फिल्म दिखाती है
कि जेंडर
के आधार
पर असुरक्षित
होना क्या
होता है
और सुरक्षा
के नाम
पर किसी
वर्ग या
जेंडर को
भयाक्रांत बनाए रखने के साथ उनकी स्वतंत्रता छीन
कर उन्हें
पव्लिक स्पेस
से गायब
कर देना
कैसा होता
है। जब
किसी कस्बे
के सारे पुरुष स्त्री से डरते है
तब ये
फिल्म उस
समाज को
संकेतिक रूप
से रखती
है जहां
औरतें आतंकवाद,
नक्सलवाद, माओवाद, डकैती, लूटपाट इन
सबसे ज्यादा
पुरुषों से
डरती हैं।
रास्तों पर
पुरुष उन्हें
नुकसान पहुंचा
सकता है
तो घर
की दीवारें
ही उनके
लिए सुरक्षित
जगह है,
पुरुषों की
नज़रों या
मेल गेज़
से बचने
के लिए
दुपट्टा, पल्ला,
घुंघट हिजाब
समाज के
सौ तरीके
है कुल
मिला कर
सुरक्षा के
नाम पर
औरतों से
पब्लिक स्पेस
पर क्लेम
करने का
अधिकार ही
छीन लिया
जाता है।
जब स्त्री के सारे
पुरुष घूंघट डालकर सड़कों पर निकलते हैं और पुरुषों
को ये
हिदायत दी
जाती है
कि अकेले
मत जाओ
झुंड मे
जाओ या जब
इस फिल्म का जवान मर्द ये
कहते हैं कि
हमारे डैडी
इंतज़ार कर
रहे होंगे,
हम भी
मम्मी को बोल
कर नहीं
आए, तो
महज
चार दिनें में इस समाजिक
व्यवस्था की
चिंता चरम
पर पहुंच
जाती है
और लोग
उस एक
स्त्री से
छुटकारा पाने
के लिए
अधीर हो
उठते हैं।
वहीं सदियों से ऐसे
हालातों को
औरतो की
जिंदगी का
हिस्सा बनाए
रखा गया
है लेकिन
आज तक
किसी ने
उन पुरुषों
या विचारों
से छुटकारा
पाने की
अधीरता नहीं
दिखाई जो
इस व्यवस्था
के मूल
में हैं।
ये फिल्म मर्दानगी
के कॉन्सेप्ट
को भी
उलट कर
देखती है,
इसका हीरो
लेडीज टेलर
है और
सिलाई में
उसे महारत
हासिल है,
वो भूत
से लड़ता
नहीं है,
डरता है
और सुहागरात
मनाने के
लिए भी
तैयार हो
जाता है।
जब भूत
को मारने
की बात
आती है
तो वो
खंजर उसके
सीने में
डालने की
जगह चोटी
काट कर
लाने की
वकालत करता
है। जब विकी (राजकुमार राव) कहता है कि उसका जन्म
पेटीकोट और ब्लाउज ढीले करने के लिए नहीं हुआ है तो सांकेतिक ही सही वो मर्दानगी की
मान्यताओं को तोड़ता है।
अपने एक्टर्स के
अभिनय के
इस्तेमाल में
निर्देशक सफल
ह्ए है
कोई भी
चरित्र कहीं
भी ढीला
नही पड़ता।
फिल्म में
विजय राज
और पंकज
त्रिपठी की
छोटी सी
हास्य जुगलबंदीं
अपने आप
ही रन
फिल्म के
कौवा बिरियानी की याद
दिला देती
हैं। फिल्म
का अंत
‘स्त्री हमारी
रक्षा करना’
समाज में
नए मायने
गढ़ता है
निर्देशक अमर कौशिक
ने हॉरर
कॉमेडी के
जरिए व्यवस्था
को उलट
कर देखने
की बेहतरीन
कोशिश की
है। भूत -प्रेत
के जरिए व्यवस्था
पर और
ज्यादा व्यंग
किया जा
सकता था
क्योकि इस
फिल्म में
ये स्पेस
मौजूद है।
बाजार के
पॉपुलर कल्चर
को अपनाते
हुए भूत-प्रेत की
अवैज्ञानिकता को बनाए रखना शायद
फिल्म के
अप्रोच के
साथ न्याय
नहीं है,
ये फिल्म इस अवैज्ञानिकता को तोड़ने को जोखिम उठा सकती थी।